Sunday, August 14, 2011

सर्जन हारा

सर्जन हारा "
 
इतने लोग इतना तमाशा
खीर मलाई दुध बतासा
सुखी रोटी पे नामक कि आशा
तारो कि चमक सुरज का तेज
कडी दोपेहरी धरती कि मेज
क्यू किया ही ये बटवारा
खेल राहा जो ये जग सारा
तेरे आस पे ओ "सर्जन हारा"....
मां कि ममता आंचल कि छाव
पिता का प्यार और बिखराव
क्या भिन्न होते ही इनके भाव
जेठ कि गर्मी पूष कि ठंड
अलग अलग मौसम के रंग
तुने हि तो बनाये है
इस स्रष्टी को सजाये है
फिर इन्सान क्यू विभक्त है
तीर्ष्णा मे यु लिप्त है
सबसे जिता तुझसे हारा
आके देख ओ "सर्जन हारा "......
आने कि खुशी जाने का दुख
ढलती उम्र पैसो कि भूख
रुतबे कि ठास पहुच कि हुक
दरवान सिपाही और बंदूक
सब के सब बेमानी है
जो सबने यहा ठानी है
तू भी देख के हंसता होगा
जीवन इससे क्या सस्ता होगा
आब तो बोल कि तू भी हारा
जग बसा के "सर्जन हारा "..........
शुरू इक सा अन्तः भी समं
दो गज चादर आंखे नम
तेरी सत्ता तेरा भ्रम
दौलत सोहरत और अहं
सच किसने है फिर स्वीकारा
सबके उपर " सर्जन हारा ".............